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शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

“देश के पहले प्रधानमंत्री बन सकते थे पटेल, पर नेहरू के एक फैसले ने बदल दी इतिहास की धारा”





सरदार वल्लभभाई पटेल 150वीं जयंती और पीएम मोदी का संदेश

पूरा देश आज 31 अक्टूबर को भारत के लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की 150वीं जयंती मना रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज केवड़िया में पटेल परिवार से मुलाकात कर श्रद्धांजलि अर्पित की। देश “एकता के रंग” में रंगा हुआ है — और यह एकता, असल में पटेल की सोच, त्याग और बलिदान की नींव पर खड़ी है।

महात्मा गांधी ने खुद कहा था —

“मुझे जवाहरलाल नेहरू बहुत प्रिय हैं, पर प्रशासक के रूप में वल्लभभाई पटेल सबसे श्रेष्ठ हैं।”

आज का भारत — उसका भूगोल, उसकी सीमाएं और उसका एकता का स्वरूप — सब सरदार पटेल की देन है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि सरदार पटेल को देश का पहला प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनने दिया गया? आइए, जानते हैं यह इतिहास की वह कहानी जिसे अक्सर इतिहास की किताबों ने अधूरा छोड़ दिया।


 गांधीजी की हत्या के बाद पटेल का त्याग

गांधीजी की हत्या के समय पटेल देश के गृहमंत्री थे। विरोधियों ने आरोप लगाया कि वे गांधीजी की सुरक्षा नहीं कर पाए और खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इस आरोप से दुखी होकर पटेल ने तुरंत इस्तीफे की पेशकश कर दी।

नेहरू ने उन्हें रोकते हुए कहा —

“हमारा साथ 30 साल पुराना है, मैं आप पर भरोसा करता हूँ।”

लेकिन भीतर ही भीतर दोनों के बीच मतभेद गहरे होते जा रहे थे।


 कांग्रेस अध्यक्ष को ही बनना था देश का पहला प्रधानमंत्री

1946 में यह तय हो चुका था कि कांग्रेस अध्यक्ष ही स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री बनेगा। उस समय कांग्रेस के 15 प्रदेश समितियों में से 12 ने सरदार पटेल को अध्यक्ष पद के लिए नामांकित किया

नेहरू के नाम का किसी भी समिति ने प्रस्ताव तक नहीं दिया था। यानी पटेल निर्विरोध रूप से अध्यक्ष चुने जा चुके थे। लेकिन फिर अचानक घटनाओं ने मोड़ ले लिया।


 नेहरू का हठ: “मैं नंबर दो नहीं बनूंगा”

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जब गांधीजी ने अपनी “पसंद” नेहरू को बताई, तो नेहरू के पक्ष में कुछ नेताओं ने नया प्रस्ताव तैयार किया।

गांधीजी ने पटेल से कहा —

“जवाहरलाल दूसरा स्थान स्वीकार नहीं करेंगे, इसलिए तुम अपना नाम वापस ले लो।”

देश की एकता और संगठन की खातिर पटेल ने तुरंत अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली
राजेंद्र प्रसाद ने तब दुख जताया था —

“गांधीजी ने फिर एक बार ‘ग्लैमरस नेहरू’ की खातिर अपने भरोसेमंद साथी की बलि दे दी।”


 क्यों बने ‘नंबर दो’?

पटेल ने दो कारणों से नेहरू के अधीन रहना मंजूर किया:

  1. उनके लिए देश सेवा, पद से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी।

  2. वे नहीं चाहते थे कि असहमति से देश में विभाजन और गहराई।

उनका मानना था कि अगर नेहरू को नेतृत्व से वंचित किया गया, तो वे विपक्ष में चले जाएंगे — और इससे आज़ाद भारत की नींव कमजोर होगी।


 मौलाना आज़ाद की स्वीकारोक्ति: “यह मेरी सबसे बड़ी भूल थी”

मौलाना आज़ाद ने अपनी आत्मकथा India Wins Freedom में लिखा —

“यह शायद मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती थी कि मैंने पटेल का समर्थन नहीं किया। अगर वे कांग्रेस अध्यक्ष बनते, तो भारत का विभाजन इतना भयानक न होता।”

उनके मुताबिक, पटेल ने वह सब कर दिखाया जो एक सच्चा राष्ट्रनिर्माता कर सकता था।


🔸 राजगोपालाचारी ने भी कहा: “नेहरू विदेश मंत्री होते तो बेहतर था”

सी. राजगोपालाचारी ने लिखा —

“अगर नेहरू विदेश मंत्री और पटेल प्रधानमंत्री बने होते, तो भारत कहीं अधिक मजबूत होता।”

उन्होंने आगे कहा कि पटेल के बारे में यह मिथक फैलाया गया कि वे मुसलमानों के विरोधी थे, जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत थी।


🔹 अगर गांधीजी हस्तक्षेप नहीं करते...

माइकल ब्रेचर ने अपनी पुस्तक Nehru: A Political Biography में लिखा है —

“अगर गांधीजी ने हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो पटेल ही भारत के पहले प्रधानमंत्री होते।”

पटेल संगठन, प्रशासन और जमीनी नेतृत्व के प्रतीक थे।
उन्होंने 562 रियासतों का विलय कर अखंड भारत की कल्पना को साकार किया।


🇮🇳 निष्कर्ष: लौहपुरुष का मौन बलिदान

सरदार पटेल ने न सत्ता की चाह रखी, न पद का लोभ।
उन्होंने केवल एक लक्ष्य चुना — भारत की एकता और अखंडता।

आज जब पूरा देश राष्ट्रीय एकता दिवस मना रहा है,
तो हमें याद रखना चाहिए कि अगर वल्लभभाई पटेल प्रधानमंत्री होते —
तो शायद आज का भारत और भी मजबूत, संगठित और आत्मनिर्भर होता।

"एकता में ही भारत की शक्ति है — और यह शक्ति हमें सरदार पटेल से विरासत में मिली है।"



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